आंखों के रोग- Eye Diseases

आंखों से संबंधित रोग: Eye Related Diseases In Hindi अंर्तराष्ट्रीय दिवस पर हर साल अक्टूबर महीने में विश्व दृष्टि दिवस मनाया जाता है। इस दिवस का ध्येय है, आंखों की बीमारियों और समस्याओं को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाना है। हमारी आंखें अनमोल हैं और इनसे हम यह खूबसूरत दुनिया देखते हैं, लेकिन आंखों के प्रति हमारी थोड़ी सी भी लापरवाही हमें अंधेपन का‍ शिकार भी बना सकती है। हममें से बहुत से ऐसे लोग हैं, जो आंखों की समस्याओं के शुरूआती लक्षणों को अनदेखा कर देते हैं और धीरे-धीरे उनमें यह समस्याएं गंभीर रूप ले लेती है। इसलिए शरीर के अन्य अंगों की तरह आंखों की देखभाल को भी प्राथमिकता देनी चाहिए। आज हम आपको आंखों से संबंधित कुछ सामान्य रोग, उनके लक्षण और उपचार के बारे में बता रहे हैं। कंजक्टिवाइटिस: Conjunctivitis In Hindi यह अत्यंत संक्रामक रोग है। इसका वाइरस या बैक्टेरिया स्पर्श के द्वारा किसी संक्रमित व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचता है। पीडि़त व्यक्ति अपनी आंख छूने के बाद जो भी वस्तु या सतह छुएगा, वह संक्रमित हो जाएगी। स्वस्थ व्यक्ति द्वारा वह वस्तु या सतह छूने के बाद आंख को छूने से रोग स्वस्थ व्यक्ति की आंख तक पहुंच जाता है। हवा के द्वारा वाइरस का फैलाव बहुत सीमित ही होता है। ये हैं कंजक्टिवाइटिस के लक्षण आंख में खुजली, लाली, चुभन व जलन होना। आंख से कीचड़ निकलना। रोशनी से उलझन होना आंख में कुछ गिरे होने का अहसास होना। बचाव के तरीके जब कॅन्जंक्टिवाइटिस तेजी से फैला हो तब जहां तक हो सके आंखों को न छुएं। अगर छूना भी पड़े तो हाथों को अच्छी तरह धोकर ही आंख को छुएं या हाथ के पीछे के भाग से आंख को छुएं। किसी अन्य व्यक्ति का तौलिया आदि न प्रयोग करें। कंजक्टीवाइटिस ग्रस्त व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त कोई भी वस्तु न छुएं। हाथों को दिन में कई बार साबुन से धोएं। काले धब्बे यानि फ्लोटर्स: Floaters Diseases In Hindi फ्लोटर्स गहरे धब्बे, लकीरें या डॉट्स जैसे होते हैं, जो नजर के सामने तैरते हुए दिखते हैं। यह ज़्यादा स्पष्ट रूप से आसमान की ओर देखते हुए दिखाई देते है। हालांकि फ्लोटर्स नजर के सामने दिखाई देते हैं, परन्तु वास्तव में ये आंख की अंदरूनी सतह पर तैरते हैं। हमारी आंखों में एक जेली जैसा तत्व मौजूद होता है, जिसे विट्रियस कहते हैं। यह आंख के भीतर की खोखली जगह को भरता है। जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बढ़ती है, वैसे ही विट्रियस सिकुडऩे लगता है। इस कारण आंख में कुछ गुच्छे बनने लगते हैं, जिन्हें फ्लोटर्स कहते हैं। फ्लोटर्स के कारण बढ़ती उम्र के अलावा पोस्टीरियर विट्रियस डिटैचमेंट (पी.वी.डी) भी इस रोग के होने का कारण है। पी.वी.डी. एक अवस्था है, जिसमें विट्रियस जेल रेटिना से खिंचने लगता है। यह स्थिति भी फ्लोटर्स के होने का एक मुख्य कारण है। कई बार विट्रियस हैमरेज या माइग्रेन सरीखे रोगों की वजह से भी फ्लोटर्स की समस्या उत्पन्न हो जाती है। कई बार फ्लोटर्स के साथ आंखों में चमकीली रोशनी भी दिखाई देती है। इस रोशनी को फ्लैशेस कहते हैं, जो मुख्यत: नजर के एक तरफ दिखाई देती है। फ्लोटर्स की तरह ही फ्लैशेस भी विट्रियस जेल के रेटिना से खिंचने के कारण होते हैं। अगर आपको चमकीली धारियां 10 से 20 मिनट तक दिखाई दें, तो यह माइग्रेन का लक्षण भी हो सकता है। फ्लोटर्स का इलाज फ्लोटर्स और फ्लैशेस का उपचार उनकी अवस्था पर निर्भर करता है। वैसे तो ये नुकसानदायक नहीं होते पर यह बहुत जरूरी है कि आप अपनी आंखें जरूर चेकअप कराएं कि कहीं रेटिना में कोई क्षति न हो। समय के साथ ज्यादातर फ्लोटर्स खुद मिट जाते हैं और कम कष्टदायक हो जाते हैं, पर यदि आपको इनकी वजह से दिनचर्या के कार्य करने में परेशानी आती है, तो फ्लोटर करेक्शन सर्जरी करवाने के बारे में आप सोच सकते है। यदि रेटिनल टीयर (रेटिना में छेद) है, तो डॉक्टर आपको लेजर सर्जरी या क्रायोथेरेपी करवाने का सुझाव दे सकते हैं। पार्किन्संस रोग: Parkinson's Disease In Hindi आंख के पीछे तंत्रिका कोशिकाओं की परत रेटिना के पतले होते जाने का पार्किन्संस रोग (पीडी) से संबंध हो सकता है। एक अनुसंधान में इस बात का खुलासा हुआ है। एक अध्ययन के मुताबिक, रेटिना का पतलापन मस्तिष्क कोशिकाओं की क्षति से जुड़ा हुआ है, जो डोपामाइन का उत्पादन करती हैं। डोपामाइन से गति को नियंत्रित किया जाता है। यह पीडी का एक हॉलमार्क है जो मोटर क्षमता को कम करता है। अगर अन्य अध्ययनों में भी इसकी पुष्टि हो जाती है तो रेटिना स्कैन न केवल इसके शीघ्र उपचार का रास्ता खोल सकता है, बल्कि इससे उपचार की अधिक सटीक निगरानी भी संभव हो सकेगी। पार्किन्संस रोग की शुरुआत (ईओपीडी) 40 साल की उम्र से पहले भी हो सकती है। 60 साल की उम्र में इसकी प्रसार दर प्रति एक लाख आबादी में 247 है। पार्किसंस के लक्षण शरीर में अकड़न महसूस होना। पैदल चलते वक्त जोर लगना। किसी से हाथ मिलाते वक्त हाथ का कांपना। हाथ की अंगुली में कंपन रहना। चलते समय पैर को जमीन को घिसटते हुए चलना। नींद कम आना, सांस जल्द भरना, पेशाब रुक-रुककर आना। यह रोग महिलाओं की तुलना में पुरुषों में ज्यादा होता है। किसी से बात करने में रुचि न होना। बातचीत करते समय हल्का कांपना। कुर्सी पर बैठे समय हाथ और पैर में कंपन होना। शर्ट के बटन बंद करते वक्त कंपन होगा। सूई में धागा डालते समय हाथ में कंपन रहना। क्या हैं इसके कारण ज्यादातर तनाव में रहने के कारण व्यक्ति कम आयु में भी पार्किंसंस बीमारी की चपेट में आ सकता है। तंबाकू और अन्य नशीले पदार्थों का सेवन करना भी इस बीमारी का कारण है। किसी बीमारी के कारण ज्यादा दवाओं का सेवन और फास्ट फूड ज्यादा खाना से यह बीमारी हो सकती है। इस बीमारी में मस्तिष्क से जाने वाली नलियों में अवरोध हो जाता है। पार्किंसंस के लिए आयुर्वेदिक उपचार पार्किंसन रोग केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का एक ऐसा रोग है जिसमें रोगी के शरीर के अंग कंपन करते रहते हैं। पार्किंसन का आरम्भ आहिस्ता-आहिस्ता होता है। पता भी नहीं पड़ता कि कब लक्षण शुरू हुए। अनेक सप्ताहों व महीनों के बाद जब लक्षणों की तीव्रता बढ़ जाती है तब अहसास होता है कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन घबराइए नहीं क्‍योंकि आयुर्वेदिक की मदद से पार्किंसंस के प्राकृतिक उपचार में मदद मिलती है, जिससे बीमारी से छुटकारा पाकर आपका शरीर पूरी तरह स्‍वस्‍थ हो जाता है। यह एक ऐसा इलाज है जिसमें पूरे शरीर का इलाज किया जा सकता है। आयुर्वेदिक उपचार तथ्‍य पर आधारित होता है, जिसमें अधिकतर समस्‍याएं त्रिदोष में असंतुलन यानी कफ, वात और पित्त के कारण उत्‍पन्‍न होती है। मोतियाबिंद : Cataract In Hindi बढ़ती उम्र के साथ होने वाली आंखों की सबसे सामान्य समस्या मोतियाबिंद है। इस समस्या में आंख के अंदर के लेंस की पारदर्शिता धीरे-धीरे कम होती जाती है, जिसके परिणामस्वरूप अस व्यक्ति को धुंधला दिखाई देने लगता है। दरअसल आंखों का लेंस प्रोटीन और पानी से बना होता है। जब उम्र बढ़ने लगती है तो ये प्रोटीन आपस में जुड़ने लगते हैं और लेंस के उस भाग को धुंधला कर देते हैं। मोतियाबिंद धीरे-धीरे बढ़ कर पूरी तरह दृष्टि को भी खराब कर सकता है। डॉक्टरों के अनुसार 50 साल की उम्र के बाद हर व्यक्ति को मोतियबिंद की जांच के लिए नेत्र चिकित्सक के पास जरूर जाना चाहिए। मोतियाबिंद की चिकित्सा में शल्य क्रिया द्वारा अपारदर्शी लेंस को निकाल कर कृत्रिम पारदर्शी लेंस लगा दिया जाता है। इसके बाद दृष्टी लगभग सामान्य हो जाती है। कैसे होता है मोतियाबिंद मोतियाबिंद क्या है इससे समझने के लिए पहले आंखों की संरचना को जानना जरूरी है। हमारी आंखों की पुतली के पीछे एक लेंस होता है। पुतली पर पड़ने वाली लाइट को यह लेंस फोकस करता है और रेटिना पर ऑब्जेक्ट की साफ तस्वीर बनती है। रेटिना से यह तस्वीर नर्व तक और वहां से दिमाग तक पहुंचती है। आंख की पुतली के पीछे मौजूद यह लेंस पूरी तरह से साफ होता है, ताकि इससे लाइट आसानी से पास हो सके। कभी-कभी इस लेंस पर कुछ धुंधलापन (क्लाउडिंग) आ जाता है, जिसकी वजह से इससे गुजरने वाली लाइट ब्लॉक होने लगती है। इसका नतीजा यह होता है कि पूरी लाइट पास होने पर जो ऑब्जेक्ट इंसान को बिल्कुल साफ दिखाई देता था, अब कम लाइट पास होने की वजह से वही ऑब्जेक्ट धुंधला नजर आने लगता है। लेंस पर होनेवाले इसी धुंधलेपन की स्थिति को मोतियाबिंद कहा जाता है। मोबियाबिंद के लक्षण धुंधली या अस्पष्ट दृष्टी रोशनी के चारों ओर गोल घेरा सा दिखना रात के वक्त कम दिखाई देना हर वक्त दोहरा दिखाई देना हर रंग का फीका दिखना मोतियाबिंद में सर्जरी मोतियाबिंद की सर्जरी में सुई के बगैर, टांके के बिना और पट्टी के बगैर ऑपरेशन कर दिया जाता है। इसी कारण ऑपरेशन के बाद मरीजों को अस्पताल में रुकने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। अब ऐसे लेंस नेत्र सर्जनों के पास उपलब्ध हैं, जो सूक्ष्म छिद्र द्वारा प्रत्यारोपित किए जा सकते हैं। इस तरह के ऑपरेशनों को नियंत्रित (कंट्रोल्ड) वातावरण में किया जाता है। इसलिए साल भर इन आपरेशनों को एक समान गुणवत्ता के साथ करना संभव हो गया है। यह जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह समझना आवश्यक है कि मोतियाबिंद की सर्जरी को किसी भी मौसम में एकसमान सुरक्षित ढंग से किया जा सकता है। ग्लूकोमा: Glaucoma In Hindi ग्लूकोमा भी आंखों में होने वाली एक आम समस्या है। इसमें आंख के अंदर का दबाव बढ़ जाता है जिस कारण देखने मेंमदद करने वाले ऑप्टिक नर्व को नुकसान पहुंचाता है। यदि ग्लूकोमा की चिकित्सा समय रहते ना की जाए तो यह अंधेपन का कारण भी बन सकता है। यह लंबे समय तक चलने वाला रोग है अर्थात इससे होने नुकसान भी धीरे-धीरे होता है। इसलिए अधिकांश लोग इसे सामान्य दृष्टि की समस्या समझ कर ऐसे ही छोड़ देते हैं, जो हानिकारक हो सकता है। उम्र बढ़ने के साथ ही कॉर्निया की मोटाई कम हो जाती है, इसलिए ग्लूकोमा होने की आशंका भी बढ़ जाती है। ग्लूकोमा की पहचान जितनी जल्दी हो जाये, उतनी अच्छी तरह उसकी रोक-थाम व इलाज हो सकता है। इसका उपचार आइ ड्रॉप्स, लेजर चिकित्सा अथवा शल्य चिकित्सा द्वारा की जाती है। ग्लूकोमा के लक्षण ग्लूकोमा आंखों की एक आम समस्या है। आमतौर पर ग्लूकोमा के प्रारंभिक लक्षणों को पहचानना काफी मुश्किल होता है, लेकिन जैसे-जैसे यह रोग बढ़ता जाता है आंखों की ऊपरी सतह और देखने की क्षमता प्रभावित होने लगती हैं। कई बार काला मोतिया गंभीर हो जाता है, जिस कारण अंधापन भी हो सकता है। अक्सर लोग इस बीमारी पर आंखों की कार्यक्षमता कम होने तक ध्यान नहीं देते। काले मोतिया या मोतियाबिंद के दौरान आंख की मस्तिष्क को संकेत भेजने वाली ऑप्टिक तंत्रिकाएं बुरी तरह प्रभावित होती है। और उनकी कार्यक्षमता धीमी हो जाती है। इससे दूसरी आंख पर अधिक दबाव पड़ता है यह स्थिति काफी खतरनाक होती है। ग्लूकोमा के लिए जांच ग्लूकोमा का शुरुआती अवस्था में पता लगाने के लिए जरूरी है कि आप समय-समय पर अपनी आंखों की जांच कराएं। 40 वर्ष की आयु के बाद आपके लिए यह और भी जरूरी हो जाता है कि आप किसी अच्छे नेत्र विशेषज्ञ से आंखों की नियमित जांच करवाते रहें। इस नियमित जांच में विजन टेस्ट भी शामिल होना चाहिए। इसके अलावा आई प्रेशर मेजरमेंट और कम रोशनी में आंखों के रेटिना, ऑप्टिक नर्व इत्यादि का परीक्षण करवाते रहना भी जरूरी होता है। यदि आपको इस बीमारी को लेकर कोई शंका हो तो आपको डॉक्टर से सलाह लेकर कुछ अन्य विशेष टेस्ट जैसे- गोनियोस्कोपी, कम्यूटराइज्ड फिल्ड टेस्ट, सेंट्रल कॉर्नील थिकनेस और नर्व फाइबर आदि भी करवाने चाहिए।

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